छठ पूजा: ऐसा कहा जाता है कि यह पर्व बिहार वासियों का सबसे बड़ा पर्व है, और ये उनकी संस्कृति का अंश है। ये पर्व वैदिक काल से चला आ रहा है, और छठ पर्व बिहार के अलावा भी कई अन्य प्रांतों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है, क्योंकि ये बिहार की संस्कृति बन चुका हैं।
छठ पर्व मुख्य रूप से ऋग्वेद पर आधारित है, क्योंकि ये ऋग्वेद में सूर्य पूजन, उषा पूजन और आर्य परंपरा के आधार पर ही मनाया जाता है।
📝 Table of contents (विषय-सूची)
- छठ पूजा का विस्तृत वर्णन
- छठ पर्व की शुरुआत
- इस पर्व का नाम छठ कैसे पड़ा
- छठ पर्व की लोक आस्था
- छठ पर्व का वैज्ञानिक महत्व
- छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं
- छठ पर्व में संध्या अर्घ्य
- छठ पर्व में उषा अर्घ्य
- छठ पर्व में व्रत
- छठ पर्व में सूर्य पूजा का तात्पर्य
- छठ पूजा का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
- छठ पूजा की तिथि
- छठ पूजा और बिहारवासियों की पहचान
छठ पूजा का विस्तृत वर्णन
यह पर्व छठ या षष्ठी पूजा कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के छठवें दिन मतलब षष्ठी
को मनाया जाता है, यह एक हिन्दू पर्व है, जिसमें मुख्य रूप से भगवान सूर्य की
उपासना की जाती है, यह पर्व मुख्य रूप से भारत देश के बिहार, झारखंड, पूर्वी
उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ क्षेत्रों में मनाया जाता है, लेकिन इसके अलावा
भी देश के अन्य राज्य जहां भी इन राज्यों के प्रवासी लोग हैं वहां भी यह पर्व
पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
छठ पर्व को छठ, छठी प्रकृति माई की पूजा, छठ पर्व, सूर्य व्रत, उषा पूजा, डाला
छठ, डाला पूजा, सूर्य षष्ठी आदि नामों से भी जाना जाता है। जिसे मुख्य रूप से
हिन्दू, बिहार वासी, उत्तर भारतीय, भारतीय देश के प्रवासी लोग सर्व कामना
पूर्ति हेतु मानते हैं, जिसमें सूर्य उपासना, निर्जला व्रत आदि करने की परंपरा
है। जिसे दीपावली के छठे दिन मनाया जाता है।
इस पर्व को हिंदू धर्म अलावा इस्लाम धर्म सहित अन्य धर्म को मानने वाले लोग भी
मनाते देखे जा सकते हैं। समय के साथ साथ धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के
अलावा भी विश्व भर में प्रचलित हो रहा है। छठ में कोई मूर्ति पूजा शामिल नहीं
है, लेकिन छठ पूजा उषा, सूर्य, प्रकृति देवी,जल, वायु और उनकी बहन छठी मइया को
समर्पित है।
छठ पर्व या त्यौहार के अनुष्ठान अत्यंत ही कठिन होते हैं और इनकी अवधि चार
दिनों की होती है, इनमें स्नान, उपवास और पीने के पानी से भी दूर रहना, और लंबे
समय तक पानी में खड़ा रहना आदि के साथ साथ प्रसाद का अर्घ्य देना भी शामिल होता
है।
छठ पर्व पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल त्यौहार है, छठ पर्व सिर्फ महिलाएं ही
नहीं बल्कि पुरुष, बूढ़े, जवान आदि लोग भी मनाते हैं, इस छठ पर्व के मुख्य
उपासक आमतौर पर महिलाएं होती हैं, लेकिन पुरुष भी इस उत्सव में शामिल होकर उसका
पालन करते हैं।
छठ पर्व की शुरुआत
एक प्राचीन कालीन कथा के अनुसार जब पहली बार देवता और असुरों के बीच युद्ध हुआ
था तब असुरों से देवता हार गये थे, उस समय देवताओं की माता अदिति ने एक तेजस्वी
पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना
की थी और उसी से प्रसन्न होकर छठी मैया ने माता अदिति को सर्वगुण संपन्न
तेजस्वी पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था, और उसके बाद अदिति को त्रिदेव स्वरूप
आदित्य भगवान की प्राप्ति हुई, उन्होंने असुरों का संहार कर देवताओं को विजय
दिलाई।
यह भी कहा जाता है कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम
भी "देव" हो गया और उसी समय से छठ का भी चलन शुरू हो गया।
छठी माता कौन हैं
लोक कथाओं के अनुसार छठ माता ब्रम्हा जी की मानस पुत्री हैं, और भगवान सूर्य की बहन हैं, छठी मईया और सूर्य देव का सम्बन्ध भाई-बहन का है, और लोक
माता षष्ठी की पहली पूजा भगवान सूर्य ने ही की थी।
इस पर्व का नाम छठ कैसे पड़ा
कार्तिक महीने की अमावस्या को दिवाली मनाई जाती है और इसके बाद मनाये जाने वाले
इस व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक मास शुक्ल षष्ठी की होती है
जो चार दिनों तक चलता है। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने
के कारण ही इसका नामकरण छठ व्रत पड़ा, छठ शब्द षष्ठी का ही अपभ्रंश है।
छठ पर्व की लोक आस्था
छठ पर्व से संबंधित बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक कथा महाभारत काल
से भी है, जिसके अनुसार जब पांडव दुर्योधन से अपना सारा राजपाट जुए में हार गये
थे, तब भगवान श्री कृष्ण के द्वारा बताए जाने पर द्रौपदी ने छठ का व्रत रखा था,
जिसकी वजह से उनकी मनोकामना पूरी हुईं और परिणाम स्वरूप पांडवों को उनका समस्त
राजपाट वापस मिल गया था।
षष्ठी देवी माता को कात्यायनी माता के नाम से भी जाना जाता है, छठ पूजा साल में दो बार होती है, पहली चैत्र माह में और दूसरा कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि से शुरू होकर पंचमी सप्तमी तक मनाया जाता है।
नवरात्रि के दिन छठवें दिन में हम षष्ठी माता की पूजा करते हैं, षष्ठी माता की पूजा, भगवान सूर्य और मां गंगा की पूजा देश भर में एक लोकप्रिय पूजा है। क्योंकि यह प्राकृतिक सौंदर्य और परिवार के कल्याण आदि के लिए की जाने वाली एक महत्वपूर्ण पूजा है। इस पूजा में गंगा नदी या अन्य नदी के अलावा तालाब जैसे जगह का होना अनिवार्य है, जिसके लिए सभी नदी तालाब की साफ सफाई भी करवाई जाती है, इस पूजा को घर परिवार के सभी सदस्यों की सुरक्षा एवं स्वास्थ्य लाभ, मनोवांछित फल प्राप्ति एवं संपन्नता के लिए करते हैं।
छठ पर्व का वैज्ञानिक महत्व
पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है, क्योंकि कार्तिक मास के छठे दिन छठ
पर्व को अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो इस तिथि (छठ) को एक
महत्त्वपूर्ण खगोलीय परिवर्तन होता है, कयोंकि इस समय सूर्य की पराबैंगनी
किरणें जिसे अंग्रेजी में अल्ट्रावायलेट रेज कहते हैं, वह पृथ्वी के सतह
(धरातल) पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं, जिसकी वजह से
पृथ्वी पर होने वाले समस्त दुष्प्रभावों या कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव
रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है।
इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश के हानिकारक प्रभाव से समस्त जीवों की रक्षा
सम्भव है, उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य को जीवन को
लाभ होता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की
अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण
इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है।
छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं
सबसे पहले घर की साफ सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है, उसके बाद व्रतधारक अपने
नजदीक में स्थित नदी, तालाब या गंगा में जाकर स्नान करते है, नाखून वगैरह को
अच्छी तरह काटकर, साफ पानी से अच्छी तरह बालों को धोकर स्नान करते हैं, और खाना
बनाने में गंगाजल का इस्तेमाल भी करते हैं।
व्रत धारण करने वाले इस दिन सिर्फ एक बार ही खाना खाते हैं, खाने में कद्दू की
सब्जी ,मूंग चना दाल, चावल का उपयोग करते है, यह खाना कांसे या मिट्टी के
बर्तनों में ही पकाया जाता है, यथासंभव खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और
मिट्टी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम
व्रत धारक ही खाना खाते हैं उसके बाद परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते है, इसमें
तली हुई पूरियां पराठे सब्जियां आदि पूरी तरह से वर्जित हैं।
चार दिनों का यह पर्व भैया दूज के तीसरे दिन से यह आरम्भ होता है, जिसके पहले
दिन घी और सेंधा नमक से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी के प्रसाद के रूप
में लिया जाता है, उसके अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है, जिसका व्रत है वह
दिनभर अन्न-जल ग्रहण नहीं करते, शाम के समय लगभग सात बजे से खीर बनाकर, पूजा
करने के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं, इस प्रक्रिया को खरना कहते हैं।
तीसरे दिन सूर्यास्त के समय डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य मतलब दूध अर्पण करते
हैं, और अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को भी अर्घ्य चढ़ाते हैं, इस पूजा में लहसुन,
प्याज वर्जित होने के साथ ही पवित्रता का भी विशेष ध्यान रखा जाता है, जिन
लोगों के घरों में यह पूजा होती है, वहाँ भक्ति गीत गाये जाते हैं, और अंत में
लोगों को पूजा का प्रसाद वितरित किया जाता है।
छठ पर्व की विशेष बात
छठ पूजा एक चार दिनों का त्योहार है, जिसकी शुरुआत कार्तिक माह में शुक्ल
चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक माह में शुक्ल सप्तमी को होती है, इस दौरान
व्रत धारण करने वाले लोग लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं, और इस बीच वे लोग
पानी भी नहीं पीते।
खरना और लोहंडा
छठ पूजा का दूसरा दिन जो कि खरना या लोहंडा कहलाता है, यह चैत्र या कार्तिक
महीने के पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन व्रत धारक पूरे दिन उपवास रखते
है, और अन्न तो दूर की बात है सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं
करते है।
शाम के समय चावल गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग करके खीर बनाते हैं, जिसमें नमक
और चीनी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, इन्हीं दोनों चीजों को पुन: सूर्यदेव
को नैवेद्य देकर उसी घर में एकांत में रहकर उसे ग्रहण करते हैं, और परिवार के
सभी सदस्य इस समय घर से बाहर चले जाते हैं ताकि कोई शोर शराबा न हो, इस एकांत
में खाते समय व्रत धारक हेतु किसी तरह की आवाज सुनना त्यौहार के नियमों के
विरुद्ध है।
व्रत धारक खाकर अपने परिवार के लोगों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वह ‘खीर-रोटी'
का प्रसाद खिलाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को 'खरना' कहते हैं। चावल का
पिठ्ठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में वितरित की जाती है। इसके बाद फिर
अगले 36 घंटों के लिए व्रत धारक निर्जला व्रत रखते है। मध्य रात्रि को व्रत
धारक छठ पूजा के लिए एक खास प्रसाद ठेकुआ भी बनाते हैं।
छठ पर्व में संध्या अर्घ्य
छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जानते हैं, यह चैत्र या
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है, इसमें दिन में सभी लोग पूजा की
तैयारियां करते है, इसके लिए लिए एक खास प्रसाद बनाते हैं जिसे ठेकुआ कहते हैं,
और चावल के लड्डू जिसे लोग कचवनिया भी कहते हैं, आदी बनाया जाता है।
इस पूजा के
लिए बांस की बनी हुई टोकरी (दउरा) में पूजा के प्रसाद,फल आदि रखकर देवस्थान में
रख दिया जाता है, वहां पूजा अर्चना करने के पश्चात शाम को एक सूप में
नारियल,पांच प्रकार के फल तथा पूजा का अन्य सभी सामान टोकरी में रखकर घर का
पुरुष अपने हाथो से उठाकर छठ पूजा के घाट पर ले जाता है, अपवित्र न हो इसलिए इस
टोकरी (दउरा) को सिर पर रखते हैं।
महिलाएं छठ का गीत गाते हुए जाती है, नदी या तालाब के किनारे पहुंच कर महिलाएं
एक सुरक्षित स्थान पर बनाये गए चबूतरे पर बैठती है, वहां नदी से मिट्टी निकाल
कर छठ माता का जो चौरा बना होता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल
चढ़ाने के बाद दीप जलाते है, सूर्यास्त होने से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा
का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में खड़े हो जाते हैं और डूबते हुए सूर्य देव
को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है।
छठ पर्व की पूजा प्रसाद सामग्री
व्रतियों (व्रत धारक) द्वारा गेहूं के आटे से निर्मित 'ठेकुआ' इसे ठेकुआ
इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे काठ (लकड़ी) के एक विशेष प्रकार के डिजाइन फर्म
पर आटे की लुगदी को ठोकर बनाया जाता है, इस पकवान के अतिरिक्त कार्तिक माह में
खेतों में उपजे हुए सभी तरह के नए कन्द-मूल, फल सब्जी, मसाले व अन्नादि यथा
गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, नींबू (बड़ा), पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी
वस्तुएं साबुत (बिना काटे और तोड़े) ही अर्पित होते हैं।
इसके अतिरिक्त दीप जलाने हेतु,नए दीपक,नई बत्तियाँ व घी ले जाकर घाट पर दीपक
जलाते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अन्न जो है वह है कुसही केराव के दाने (हल्का
हरा काला, मटर से थोड़ा छोटा दाना) हैं जो टोकरे में लाए तो जाते हैं लेकिन
सांध्य अर्घ्य में सूरज देव को अर्पित नहीं किए जाते। इन्हें टोकरे में दूसरे
दिन सुबह उगते सूर्य को अर्पण करने हेतु सुरक्षित रख दिया जाता है। उनमें से
बहुत सारे लोग घाट पर ही रात भर ठहरते है और कुछ लोग छठ का गीत गाते हुए सारा
सामान लेकर अपने घर आ जाते है और उसे देवकरी या पूजा के स्थान में रख देते है
।
छठ पर्व में उषा अर्घ्य
उषा अर्घ्य जिसमें व्रत रखने वाले सूर्यदेव को अर्घ्य देते हैं
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
सूर्योदय से पहले ही व्रत करने वाले लोग घाट पर उगते हुए सूर्य देव की पूजा
हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके परिवार के लोग उपस्थित रहते हैं।
संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से बदल दिया जाता है लेकिन
कन्द, मूल, फल आदि वही रहते हैं।
इसमें भी सभी नियम सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं,
सिर्फ व्रत धारक लोग इस समय पूरब की ओर मुंह कर पानी में खड़े होते हैं व सूर्य
की उपासना करते हैं।
पूजा-अर्चना समाप्त होने के बाद घाट का भी पूजन होता है, और वहाँ उपस्थित लोगों
में प्रसाद का वितरण करके सभी व्रत धारक अपने घर वापस आ जाते हैं, और घर पर भी
अपने परिवार और आस-पास के लोगों को प्रसाद वितरण करते हैं।
व्रत धारक घर वापस आकर गाँव या उनके नजदीक के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा
कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के बाद व्रत धारक कच्चे दूध का शरबत
पीकर और थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं।
व्रत करने वाले लोग खरना दिन से आज तक निर्जला उपवास के बाद आज सुबह ही नमक
युक्त भोजन करते हैं
छठ पर्व में व्रत
छठ उत्सव का व्रत एक बहुत ही कठिन तपस्या के समान है, छठ व्रत अधिकतर महिलाओं
द्वारा ही किया जाता है, लेकिन कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं, व्रत रखने वाली
महिलाओं को परवैतिन कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रत रखने वाले को
लगातार उपवास करना होता है और भोजन के साथ ही आरामदायक बिस्तर का भी त्याग किया
जाता है।
छठ पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रत करने वाले फर्श या जमीन पर एक कम्बल या
चादर के सहारे ही रात बिताते हैं। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े
तो पहनते हैं, लेकिन इसमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की गयी होती है।
व्रत
रखने वाले को ऐसे कपड़े पहनना भी अनिवार्य होता है इसलिए महिलाएं साड़ी और
पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं, लेकिन अब महिलाएं सिलाई कढ़ाई वाले वस्त्र भी
पहनने लगीं हैं, छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों साल तब तक करना होता है, जब
तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए।
अगर घर में किसी की मृत्यु हो जाय तो उस अवस्था में यह पर्व नहीं मनाया जाता
है, कई जगह ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न
की प्राप्ति होती है, और पुत्र की कुशलता के लिए भी सामान्य तौर पर महिलाएं यह
व्रत रखती हैं, महिलाओं के साथ साथ पुरुष भी पूरी निष्ठा से अपने मनोवांछित
कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए व्रत रखते हैं।
छठ पर्व में सूर्य पूजा का तात्पर्य
छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिन्दू धर्म में विशेष स्थान
प्राप्त है। हिन्दू धर्म के सभी देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त
रूप में देखा जा सकता है, सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी उषा और
प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती
है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (उषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम
किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों को नमन किया जाता है।
हमारे देश (भारत) में सूर्य की उपासना ऋग्वेद काल से होती आ रही है। सूर्य और
उसकी उपासना की चर्चा सभी वेद पुराणों आदि में विस्तार से की गयी है। मध्य काल
तक छठ सूर्य की उपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी
तक चला आ रहा है।
देवता के रूप में सृष्टि की पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना
मानव सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारम्भ हो
गयी, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में
मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में
इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है, और सभी देवताओं में सूर्य को प्रथम स्थान दिया
गया है।
मानवीय एवं देव के रूप में
लोग पहले तो सूर्य को साक्षात दर्शन करते थे, लेकिन समय के साथ धीरे धीरे अपनी
कल्पना से उनके मानवीय रूप देने लगे और फिर उनकी मूर्ति पूजा होने लगी, और कई
मंदिर भी स्थापित होने लगे, पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देव भी माना जाता
था, क्योंकि सूर्य की किरणों में कई तरह के रोगों को नष्ट करने की छमता भी होती
है, जिसे प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों द्वारा बताया गया है, और वर्तमान में
भी डॉक्टरों द्वारा बताया जाता है, लेकिन वर्ष में कुछ खास दिन सूर्य की किरणों
का विशेष प्रभाव होता है शायद यही छठ पर्व का कारण भी है, जब भगवान कृष्ण के
पौत्र साम्ब को भी कुष्ठ रोग हो गया था जिससे मुक्ति पाने के लिए भगवान सूर्य
की ही उपासना की गई थी।
लोक कथाएं रामायण, महाभारत और पुराणों से
भगवान श्री राम द्वारा लंका पर विजय प्राप्त के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन
भी कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की षष्ठी को भगवान श्री राम और सीता माता द्वारा ने
भी उपवास कर भगवान सूर्य की उपासना की गई थी।
लोक कथाओं के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल से हुई थी, जिसमें सबसे
पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की थी, कर्ण सूर्य देव को कमर
तक पानी में खड़े होकर अर्घ्य देते थे, और आज भी वही अर्घ्य देने की वही प्रथा
प्रचलित है। ठीक उसी प्रकार पांडवों की पत्नी द्रौपदी भी इसी तरह सूर्य देव की
पूजा किया करती थी।
एक और कथा के अनुसार राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी, तब उन्हें महर्षि
कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई
खीर प्रसाद रूप में दी, जिसके प्रभाव से उन्हें पुत्र तो हुआ लेकिन वह मृत पैदा
हुआ। और जब प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और इसी वक्त पुत्र वियोग में
अपने प्राण त्यागने लगे तभी ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुईं, और
उन्होंने कहा, सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं
षष्ठी कहलाती हूँ, हे! राजन् आप मेरी पूजा करें तथा अन्य लोगों को भी पूजा के
प्रति प्रेरित करें। राजा ने पुत्र पाने की इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया
और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई, और यह पूजा भी कार्तिक शुक्ल षष्ठी
को ही हुई थी।
छठ पूजा का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
छठ पूजा अपनी सादगी और पवित्रता का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है, भक्ति और
अध्यात्म के इस पर्व में बाँस से निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्तन, गन्ने
का रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और मधुर लोकगीतों से युक्त होकर
लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रचार करता है।
छठ पर्व लोगों द्वारा अपने रीति-रिवाजों के अनुसार बनाई गयी उपासना पद्धति है,
जिसका आधार वेद, पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है, इस
व्रत के लिए न तो बहुत अधिक रुपए-पैसों या धन की आवश्यकता है और न ही किसी
पुरोहित या गुरु की, अगर जरूरत पड़ती भी है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी
सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक सहयोग हेतु प्रस्तुत रहता है।
इस त्यौहार के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है, नगरों की
सफाई, व्रत धारकों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबंधन, तालाब या नदी किनारे
अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज और सरकार से सहायता की राह नहीं
देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य
उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की
मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट
और भव्य प्रदर्शन है।
छठ पूजा की तिथि
दीपावली के छठे दिन से शुरू होने वाला छठ का पर्व चार दिनों तक चलता है। इन
चारों दिन श्रद्धालु भगवान सूर्य की आराधना करके वर्षभर सुखी, स्वस्थ और निरोगी
होने की कामना करते हैं। चार दिनों के इस पर्व के पहले दिन घर की साफ-सफाई की
जाती है।
छठ पूजा और बिहारवासियों की पहचान
छठ पूजा को देश के कई हिस्सों में बिहार और उत्तर प्रदेश से आये उत्तर भारतीय
आर्य लोगों की पहचान के रूप में देखा जाता रहा है। यही कारण है कि महाराष्ट्र
में शिवसेना और उससे टूटकर अलग हुए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता कई बार
इसका विरोध कर चुके हैं और इस पर्व को एक प्रकार के शक्ति प्रदर्शन का नाम दे
चुके हैं।

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